बचपन से ही हमने अपनी गलतियों पर पर्दा डालने का एक आसान तरीका खोज लिया— “किस्मत को दोष देना।”
स्कूल में पढ़ाई सही से नहीं की, नंबर कम आए, तो सोचा— “मेरी किस्मत ही खराब है।”
कॉलेज में मेहनत से बचते रहे, कॉम्पिटिशन में पिछड़ गए, फिर वही बहाना— “मेरे नसीब में नहीं था।”
धीरे-धीरे ये झूठ हमारी ढाल बन गया। हम अपने आप से सच्चाई छुपाने लगे।
दूसरों से कहते रहे— “जो किस्मत में होगा, वही मिलेगा!”
लेकिन अंदर से कहीं न कहीं जानते थे कि ये सिर्फ़ एक बहाना है।
समय बीतता गया…
अब ज़िंदगी ने एक नया मोड़ लिया। ज़िम्मेदारियाँ बढ़ने लगीं।
अब सवाल सिर्फ़ अच्छे नंबरों या किसी परीक्षा का नहीं था,
अब सवाल था खुद की पहचान बनाने का, खुद के परिवार को संभालने का।
अब तो मेरी किस्मत भी कहने लगी—
“कब तक मुझे दोष देगा? कब तक खुद से भागेगा? अब तो सच का सामना कर। अब तो मेहनत कर। अब तो आगे बढ़।”
अब दुनिया को दिखाने का समय नहीं, खुद को साबित करने का समय है।
अब बहाने नहीं, कामयाबी चाहिए।
अब किस्मत पर नहीं, मेहनत पर भरोसा करना है।
“क्योंकि किस्मत भी उसी का साथ देती है, जो खुद अपनी तक़दीर बदलने की हिम्मत रखता है!”
“
“